सामग्री पर जाएँ

शैवाल

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
एक शैवाल
लौरेंशिया

शैवाल सरल सजीव हैं। अधिकांश शैवाल पौधों के समान सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में प्रकाश संश्लेषण की क्रिया द्वारा अपना भोजन स्वंय बनाते हैं अर्थात् स्वपोषी होते हैं। ये एक कोशिकीय से लेकर बहु-कोशिकीय अनेक रूपों में हो सकते हैं, परन्तु पौधों के समान इसमें जड़, पत्तियां इत्यादि रचनाएं नहीं पाई जाती हैं। ये नम भूमि, अलवणीय एवं लवणीय जल, वृक्षों की छाल, नम दीवारों पर हरी, भूरी या कुछ काली परतों के रूप में मिलते हैं। इस के अध्ययन शैवालिकी कहते है।

भूमंडल पर पाए जानेवाले पौधों का विभाजन दो बड़े विभागों में किया गया है। जो पौधे फूल तथा बीज नहीं उत्पन्न करते उनको क्रिप्टोगैम (Cryptogams) कहते हैं और जो फूल, फल एवं बीज उत्पन्न करते हैं वे फेनेरोगैम (Phanerogams) कहलाते हैं। 'शैवालों का वर्गीकरण क्रिप्टोगैम के थैलोफाइटा (Thallophyta) वर्ग में कि ये पौधे निम्न श्रेणी के होते हैं, जिनमें Ofcourse (chlorophyll) पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है। पर्णहरित विद्यमान होने के कारण, ये बहुधा हरे रंग के होते हैं। कुछ शैवाल ऐसे भी होते हैं जिनका रंग लाल, भूरा अथवा नीला हरा होता है। अधिकांश शैवाल पानी में तालाबों, रुके हुए जलाशयों तथा समुद्रों में पाए जाते हैं। कुछ शैवाल पादपों के तनों पर, अथवा पत्थर की शिलाओं के ऊपर, हरी परत के रूप में उगा करते हैं। कुछ नीले हरे वर्ण के शैवाल स्नानागार, नदियों तथा तालाबों के सोपानों पर भी उगते हैं। ये एक प्रकार का चिकना पदार्थ छोड़ते हैं, जिसके कारण बहुधा लोग फिसलकर गिर जाया करते हैं। पानी में पैदा होनेवाले शैवालों का विभाजन दो भागों में किया जाता है। कुछ मीठे पानी के शैवाल होते हैं जो तालाबों, झीलों, नदियों आदि में उगते हैं, तथा कुछ खारे पानी के, जो समुद्रों में पाए जाते हैं। मीठे पानी के शैवाल को अलवण जलशैवाल (Fresh water algae) कहते हैं तथा खारे पानीवालों को सामुद्रिक शैवाल (Marine algae) की संज्ञा देते हैं। पानी में ये या तो स्वतंत्र रूप में तैरते रहते हैं, अथवा धरातल पर एक विशेष अंग द्वारा, जिसे स्थापनांग (Hold fast) कहते हैं, स्थिर रहते हैं। पानी में तैरनेवाले शैवाल या तो एककोशीय या बहुकोशीय होते हैं।

रचना के विचार से शैवालों में बहुत विभिन्नता पाई जाती है। कुछ तो अति सूक्ष्म एककोशिक होते हैं, जो केवल सूक्ष्मदर्शी द्वारा ही दृश्य हैं तथा कुछ ऐसे होते हैं जो कई सेंमी. लंबे होते हैं। क्लोरेला (Chlorella), क्लैमिडोमॉनैस (Chlamydomonas) आदि प्रथम कोटि में ही आते हैं। बड़े कोटिवाले शैवाल सूत्रवत्‌ (filamentous) होते हैं, जो कई कोशिकाओं के बने होते हैं। सबसे बड़ा शैवाल मैक्रोसिस्टिस (Macrocystis) है, जो लाखों कोशिकाओ से बना तथा कई सौ फुट लंबा होता है। प्रत्येक कोशिका के अंदर एक केंद्रक (nucleus) होता है, जिसके चारों ओर कोशिकारस होता है। प्रत्येक कोशिका चारों ओर से कोशिकीय दीवारों से घिरी होती है। पर्णहरित तथा क्लोरोप्लास्ट (chloroplast) कोशिकारस में बिखरे रहते हैं।

वर्धी संरचना (vegetative structure) के विचार से शैवाल कई विभागों में बाँटे जा सकते हैं। कुछ तो एककोशिक तथा भ्रमणशील होते हैं, जिनमें कशभिका (flagellum) विद्यमान रहता है, जैसे यूग्लिना (Euglena) में। कुछ जातियों के अनेक एककोशिक मिलकर झुंड बनाते हैं और कशाभिका के सहारे एक जगह से दूसरी जगह भ्रमण करते हैं, जैसे प्ल्यूडोंराइना (Pleudorina), वॉलवॉक्स (Volvox) आदि। कुछ गोल (Coccoid) रूप धारण किए होते हैं, जैसे क्लोरोकॉक्कम (Chlorococcum), कुछ सूत्रवत्‌ (filamentous) होते हैं, जैसे स्पाइरोजाइरा (Spirogyra) तथा यूलोअक्स (Ulothrix)। कुछ में दंडवत्‌ रूप तथा सीधा रूप एक साथ होता है। इन्हें हेटरोट्राइकस श्रेणी में रखते हैं जैसे फ्रस्चियेल्ला (Fritschiella)। इस शैवाल में दो विभाग होते हैं, एक तो जमीन में धरातल के समानांतर सूत्रवत्‌ अंश होते है, जिसे भूशायी (prostrate) भाग कहते हैं। इन्हीं भागों में से सीधे उगनेवाले सूत्रवत्‌ भाग (filamentous form) पैदा होते हैं, जिन्हें इरेक्ट सिस्टेम (Erect system) कहते हैं। ऐसे ही शैवालों से पृथ्वी पर के बड़े बड़े पादपों के प्रादुर्भाव का होना समझा जाता है।

शैवालों में पोषण की समस्या स्वत: हल होती है। इनमें पर्णहरित विद्यमान रहता है, इसलिए प्रकाशसंश्लेषण की विधि से ये अपना भोजन स्वयं बना लेते हैं। अत: ऐसे पौधे स्वपोषी (Autotrophs) कहे जाते हैं।

शैवालों में जनन कई प्रकार से होता है। कुछ तो स्वयं विभाजित होते रहते हैं और बढ़ते चले जाते हैं। यह क्रिया अधिकतर कोशिका विभाजन की रीति से होती है। एककोशिक शैवाल इसी रीति से जनन करते हैं। बड़े कोटि के शैवालों में अलैंगिक तथा लैंगिक दोनों प्रकार के जनन होते हैं। अलैंगिक जनन कई ढंग से हो सकता है। कुछ शैवालों में चलबीजाणुओं (Zoospores) की उत्पत्ति होती है। चलबीजाणु नंगे जीवद्रव्य (Protoplasm) का पिंड होता है, जो कशाभिका के सहारे एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा सकता है। चलबीजाणु पानी के शैवालों में पैदा होते हैं। ये स्वत: अंकुरित होकर नया शैवाल बनाते हैं। जब पानी की मात्रा कम होने लगती है, अथवा विपरीत वातावरण आ पड़ता है, तो अचलबीजाणु (Aplanospores) बनते हैं, जो मोटे आवरण से चारों ओर घिरे रहते हैं। इनमें कशाभिका नहीं होती। कुछ शैवालों में अलैंगिक जनन निश्चेष्ट बीजाणुओं (akinetes) द्वारा होता है। इनके बनने की रीति यह है कि शैवाल की कोई भी कोशिका गोलाकर होकर मोटी तह के आवरण रूप में चारों ओर से आच्छादित हो जाती है। ऐसी दशा तो केवल असंगत परिस्थिति में ही देखी जाती है, विशेषकर जब शुष्क और गर्म वातावरण हो जाता है। जब अनुकूल वातावरण प्राप्त हो जाता है तब इनका अंकुरण होने लगता है और ऊपरी, मोटी तह की दीवार धीरे से टूट जाती है और नवजात शैवाल का निर्माण होने लगता है। कुछ शैवाल पानी के किनारे पड़े रहते हैं। जब विपरीत वातावरण होता है, तब इनकी कोशिकाओं में विभाजन तो होता ही रहता है, परंतु ये विलग नहीं हो पातीं, अपितु कोशिका की दीवार मोटी होती जाती है और उसके अंदर कई कोशिकाएँ भरी पड़ी रहती हैं। जब अनुकूल वातावरण आता है, तब ये अंकुरित होकर नया शैवाल बनाती हैं। ऐसी दशा को पैलमेला अवस्था (Palmella stage) कहते हैं।

लैंगिक जनन (sexual reproduction) दो विभिन्न प्रकार की कोशिकाओं के संयोग से होता है। इन कोशिकाओं को युग्मक (gametes) कहते हैं। ये युग्मक युग्मकधानियों (gametangia) में पैदा होते हैं। दोनों प्रकार के युग्मकों के संयोजन (fusion) से युग्मज (zygote) बनता है। युग्मकों के जोड़े, जिसमें से एक पितृपक्ष का तथा दूसरा मातृपक्ष का होता है, तीन प्रकार के होते हैं :

(१) समयुग्मक (isogametes) में दोनों प्रकार के युग्मकों की रचना तथा आकार समान होता है। इनके द्वारा होनेवाले जनन को समयुग्मकी (isogamous) जनन की संज्ञा देते हैं।

(२) दो संयोजित युग्मक (fusing gametes) देखने में एक ढंग के होते हैं तथा कशाभिका द्वारा भ्रमणशील होते हैं, परंतु एक छोटा तथा दूसरा बड़ा होता है। छोटे युग्मक को लघुयुग्मक (Microgamete) तथा बड़े का गुरुयुग्मक (Macrogamete) कहते हैं। ये युग्मक विषम होते हैं तथा ऐसे जनन को असययुग्मकी (anisogamous) जनन कहते हैं।

(३) दोनों प्रकार के युग्मक भिन्न आकार के होते हैं। एक छोटा और भ्रमणशील तथा दूसरा बड़ा और स्थिर होता है। प्रथम कोटिवाले को पुंयुग्मकश् (Male gamete) तथा दूसरे को स्त्री युग्मक (Female gamete) या अंडा कहते हैं। इस प्रकार के जनन को विषमयुग्मक (oogamoos) जनन कहते हैं। इस प्रकार का जनन बहुधा बड़े शैवालों में होता है और इसे विषमयुग्मकता (Oogamy) कहते हैं।

संयोजन (fusion) की क्रिया के फलस्वरूप युग्मज और युग्माणु (zygospore) बनते हैं। ये अंकुरित होते हैं। अंकुरण के समय इनमें चलबीजाणु बनते हैं जो बाहर आने पर अंकुरित होकर नए शैवाल को जन्म देते हैं। समयुग्मकी साधारण कोटि का तथा विषमयुग्मकी उच्च कोटि का जनन समझा गया है।

शैवालों का विभाजन

[संपादित करें]
छिछले समुद्र की सतह पर उगे हुए तरह-तरह के शैवाल

विभिन्न वैज्ञानिकों के मत से विभिन्न विभागों में किया गया है। एफ. ई. फ्रट्श (F. E. Fristsch) नामक एक महान्‌ शैवालविज्ञानवेत्ता ने शैवालों को ग्यारह विभागों में विभाजित किया है, जो निम्न प्रकार हैं :

(१) मिक्सोफाइसिई - ये शैवाल साधारण कोटि के होते हैं, जिनकी कोशिका में निश्चित केंद्रक नहीं होता, परंतु केंद्रजनित वस्तुएँ कोशिका में विद्यमान रहती हैं। पर्णहरित के अतिरिक्त फाइकोसाइनिन (phycocyanin) तथा फाइकोएरि्थ्रान (phycoerythrin) भी विद्यमान रहते हैं। जनन विखंडन (fission) द्वारा होता है लैंगिक जनन नहीं होता। सूत्रवत्‌ पौधों (filamentous members) में हेटरोसिस्ट्स (heterocysts) विद्यमान होते हैं। किसी किसी में समेरुका (hormogonium) बनता है, जो जनन में सहायक होता है। इस विभाग के पौधे जमीन, वृक्षों के तनों एवं डालियों तथा ईंटों पर और पानी में पैदा होते हैं। एककोशिक शैवाल कभी कभी चिपचिपा पदार्थ पैदा करते हैं और इसी में हजारों की संख्या में पड़े रहते हैं।

(२) यूग्लीनोफाइसिई - ये मीठे पानी या खारे पानी में पाए जाते हैं। बहुधा एकाकी और स्वतंत्र रूप में भ्रमणशील अथवा स्थिर रहते हैं। इनमें पौधों तथा जानवरों के गुण विद्यमान रहते हैं। कोशिका में केंद्रक तथा कशाभिका विद्यमान रहती है। जनन विभाजन द्वारा होता है।

(३) क्लोरोफाइसिई ,,,- इन शैवालों में निश्चित केंद्रक तथा पर्णहरित विद्यमान रहते हैं। बर्फीले स्थानों के शैवालों की बनावट में विभिन्नता पाई जाती है। एककोशिक से लेकर सूत्रवत्‌ पौधे तक इनमें मिलते हैं। लैंगिक जनन समयुग्मक से असमयुग्मक तक मिलता है।

(४) ज़ैंथोफाइसिई - इन शैवालों में पर्णपीत (xanthophyll) रंग विद्यमान रहता है। स्टार्च के अतिरिक्त तैल पदार्थ भोज्य पदार्थ के रूप में रहता है। कशाभिका दो होती हैं, जो लंबाई में समान नहीं होतीं। लैंगिक जनन बहुधा नहीं होता। यदि होता है, तो समयुग्मक ही होता है। कोशिका की दीवार में दो सम या असम विभाजन होते हैं।

(५) क्राइसोफाइसिई - इनमें भूरा या नारंगी रंग का वर्णकीलवक (chromatophore) होता है। भ्रमणशील कोशिका में एक, दो या तीन कशाभिकाएँ होती हैं। लैंगिक जनन समयुग्मक ढंग का होता है।

(६) बैसिलेरियोफाइसिई - इनकी कोशिकाओं की दीवारों पर सिकता (बालू) विद्यमान रहती है। दीवार आभूषित रहती है। रंग पीला, या स्वर्ण रंग का, अथवा भूरा होता है। लैंगिक जनन समयुग्मक होता हैं। कभी कभी असमयुग्मक भी होता है।

(७) क्रिप्टोफाइसिई - इनकी प्रत्येक कोशिका में दो बड़े वर्णकीलवक होते हैं, जिनका रंग विभिन्न होता है। इनमें भूरे रंग का बाहुल्य होता है। भ्रमणशील कोशिका में दो असमानकशाभिकाएँ होती हैं। लैंगिक जनन केवल एक प्रजाति में असमयुग्मक होता है।

(८) कैरोफाइसिई - ये पौधों के तने तथा शाखाओं सदृश रूप के बने होते हैं। पर्णहरित रहता है। लैंगिक जनन असमयुग्मक होता है। शुक्राणु में दो कशाभिकाएँ होती हैं। स्टार्च प्रत्येक कोशिका में विद्यमान रहता है। कभी कभी लैंगिक जनन विषमयुग्मक प्रकार का भी होता है।

(९) डाइनोफाइसिई - इस कुल के शैवाल अधिकतर एक कोशिकीय होते हैं, परंतु सूत्रवत्‌ होने की क्षमता धीरे धीरे बढ़ती जाती है, कोशिकीय दीवारें आभूषित रहती हैं। स्टार्च तथा वसा प्रकाश संश्लेषण के फलस्वरूप बनते हैं।

(१०) फीयोफाइसिई - ये अधिकतर समुद्र में पाए जाते हैं। इनका रंग भूरा होता है, क्योंकि इनमें फ्यूकोज़ैथिन (fucoxanthin) विद्यमान रहता है। प्रकाशसंश्लेषण के फलस्वरूप वसा, पॉलिसैकैराइड (Polysaccharides) तथा चीनी बनती है। पौधे सूत्रवत्‌ होते हैं। जनन अंगों में दो कशाभिकाएँ होती हैं। लैंगिक जनन विषमयुग्मक सा होता है। कभी कभी समयुग्मक जनन भी होता है।

(११) रोडोफाइसिई - इस कुटुंब के शैवाल भी समुद्र में पाए जाते हैं। इस कुटुंब में बहुत कम ऐसे शैवाल होते हैं जो मीठे पानी में उगते हैं। वह गुलाबी रंग का होता है, क्योंकि फाइकोएरिअन (Phycoerythrin) नामक वर्णक विद्यमान रहता है। जनन अंग बिना कशाभिका के होते हैं। पौधे सूत्रवत्‌ तथा अधिकतर असाधारण ढंग के होते हैं। लैगिक जनन विषमयुग्मक (oogamous) होता है। सिस्टोकार्प (cystocarp) में फलबीजाणु (corpospores) कहते हैं।

शैवाल का आर्थिक महत्व

[संपादित करें]

शैवाल का उपयोग तीन क्षेत्रों कृषि, उद्योग और चिकित्सा में बड़ा ही महत्वपूर्ण है। पिछले २० वर्षों से कृषि में शैवाल के उपयोग पर अनेक महत्वपूर्ण बातें स्थिर की गई है। प्रयोगशालाओं में अनुसंधान करने से पता चला है कि शैवाल वायु से नाइट्रोजन लेकर, मिट्टी में नाइट्रोजन के यौगिकों में परिणत कर, उसे स्थिर करते हैं। पौधों के लिए नाइट्रोजन अत्यधिक उपयोगी पोषक तत्व है। इस कारण शैवाल की महत्ता बढ़ गई है। यह नाइट्रोजन को स्थिर करके मिट्टी की उर्वरा शक्ति को बढ़ाता है और फसल में वृद्धि करता है। भारत में अनेक वैज्ञानिकों के अनुसंधान से यह ज्ञात हुआ है कि शैवाल द्वारा प्राय: २० से लेकर ३० पाउंड प्रति एकड़ तक नाइट्रोजन की वृद्धि मिट्टी में स्थिर नहीं करते। केवल मिक्सोफाइसिई (Myxophyceae) जाति के शैवाल ही इस कार्य में प्रवीण हैं। इनमें नॉस्टक (Nostuc), टौलिपोअक्स (Tolypothrix), औलिसोरा फरटिलिसिमा (Aulisora Fertilissima) तथा एनाबीना (Anabaena) इत्यादि ही सबसे अधिक महत्व के स्थापक सिद्ध हुए हैं। कटक के धानअनुसंधान केंद्र के अनुसंधान से यह ज्ञात हुआ है कि टौलिपोअकस सबसे अधिक नाइट्रोजन स्थापित करता है। धान के पौधों के विश्लेषण से यह भी पता लगा है कि शैवाल की खादवाले खेतों के पौधे मिट्टी से अधिक मात्रा में नाइट्रोजन का अवशोषण करते हैं।

कटक अनुसंधान केंद्र ने परीक्षा करके देखा है कि खेतों में शैवाल को कृत्रिम रूप से उपजाने पर धान की फसल में ८०० पाउंड तक की वृद्धि हुई। नाइट्रोजन स्थिर करनेवाले शैवाल की बहुत न्यून मात्रा बालू में मिलाकर, खेतों में डाली गई तथा सिंचाई की गई। इससे शैवाल की वृद्धि हुई, नाइट्रोजन अधिक मात्रा में मिट्टी में प्राप्त हुआ तथा धान की फसल में भी वृद्धि हुई। लेखक के अनुसंधान से यह भी जानकारी प्राप्त हुई है कि शैवाल से मिट्टी की ऊपरी सतह पर लगभग २४ पाउंड फ़ॉस्फ़ेट की वृद्धि होती है। साथ साथ १,००० पाउंड जैव कार्बन भी बढ़ जाता है, जिससे मिट्टी की संरचना और उर्वरा शक्ति में उन्नति होती है।

शैवाल के औद्योगिक प्रयोग विभिन्न दिशाओं में किए गए हैं। शैवाल से ऐगार-ऐगार (Agar-agar) नाक जटिल कार्बनिक पदार्थ, जो शर्करा वर्ग के अंतर्गत है, निकाला जाता है। इससे वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में जीवाणुपोष पदार्थ (media) बनाया जाता है। यह फल परिरक्षण में भी काम आता है। यह जेलीडियम (Geledium) और ग्रासिलारिया (Gracillaria) नामक शैवाल में अधिक पाया जाता है।

शैवाल से आयोडीन\आयोडिन (Iodine) नामक तत्व निकाला जाता है, जो ओषधि में तथा अन्य क्षेत्रों में काम आता है। रोडिमीनिया (Rhodymenia) और फिलोफोरा (Phyllophora) नामक शैवालों में आयोडिन अधिक रहता है।

समुद्र में पाए जानेवाले शैवाल मवेशियों के लिए चारे के रूप में व्यवहृत होते हैं। इनका ऐसा उपयोग सफलतापूर्वक इज़रायल में हो चुका है।

शैवाल मनुष्य का भी खाद्य पदार्थ है। कहा जाता है, अन्नसंकट में शैवाल उपयोगी खाद्यपदार्थ सिद्ध हो सकता है। शैवाल में सभी विटामिन, प्रोटीन, वसा, शर्करा तथा लवण, जो खाद्यपदार्थ की मुख्य सामग्री है, वर्तमान है। निचिया (Nitzscaia) डाइऐटॉम में विटामिन ए (A) अधिक है। अल्वा (Ulva) तथा पॉरफिरा (Porphyra) में विटामिन की मात्रा अधिक होती है। अलेरिया वालिडा (Alaria Valida) में विटामिन सी (C) अधिक पाया जाता है। नीचे दिए हुए आँकड़ों से कुछ शैवालों के पोषक तत्वों का पता चलता है :

नॉस्टक कम्यून फ्लैजेली रूप (Nostuc commune Flagelli form)
जल % --- प्रोटीन% --- वसा% --- शर्करा % --- रेशा % --- लवण %
10.6    20.9    1.2    55.7    4.1    7.5
अल्वा लैक्टूका (Ulva Lactuca) और अल्वा फासिएटा (Ulva Faciata)
जल % --- प्रोटीन% --- वसा% --- शर्करा % --- रेशा % --- लवण %
18.7    14.9    0.04   50.6    0.2    15.6

जापान, चीन, इंडोनेशिया, ऑस्ट्रेलिया, मलाया इत्यादि पूर्वी देशों में शैवाल मुख्य खाद्य पदार्थ है।

शैवाल मछलियों का आहार है। जल में रहनेवाले अन्य जीव जंतुओं के लिए भी शैवाल पोषक पदार्थ है। पशुओं के चारे के रूप में भी इसका उपयोग हो सकता है। बढ़ती हुई आबादी के आतंक से छुटकारा पाने तथा खाद्य समस्या को हल करने के लिए, शैवाल पर त्व्रीा गति से प्रयोग जारी हैं। यह कहा जाता है कि अन्नसंकट को दूर करने में क्लोरेला (Chlorella) नामक शैवाल बहुत ही उपयोगी सिद्ध हो सकता है। यह शैवाल पौष्टिक पदार्थों से परिपूर्ण है। यह फैलने के लिए अधिक स्थान भी नहीं लेता। जितनी जमीन आज हमें प्राप्त है, उसके १/५ हिस्से में ही क्लोरेला के उपजाने से २०५० ई. में अनुमानित ७० अरब जनसंख्या के लिए भोजन, विद्युत्‌ और जलावन प्राप्त हो सकता है। कानेंगी इंस्टिट्यूट, (संयुक्त राज्य, अमरीका,) के वैज्ञानिकों ने एक प्रायोगिक कारखाना बहुत बड़े पैमाने पर क्लोरेला उत्पादन के हेतु खोला है। अब तक के उत्पादन से यह अनुमान किया गया है कि प्रति एकड़ जमीन से ४० टन क्लोरेला सुगमतापूर्वक उगाया जा सकता है। इन वैज्ञानिकों का विश्वास है कि यह मात्रा १५० टन तक पहुँच सकती है।

वेनिजुएला में कुष्ठरोग की चिकित्सा में शैवाल लाभप्रद सिद्ध हुआ है। शैवाल से "लेमेनरिन' नामक एक पदार्थ बनाया गया है, जिसका उपयोग ओषधियों में तथा शल्यचिकित्सा में हो सकता है। कुछ शैवालों में मलेरिया के मच्छरों के डिंबों का नाश करने की क्षमता भी पाई गई है। अत: इनका उपयोग मलेरिया उन्मूलन में भी हो सकता है।

क्लोरेला से हम पर्याप्त परिमाण में ऑक्सीजन प्राप्त कर सकते हैं। वैज्ञानिक यह खोज कर रहे हैं कि ऑक्सीजन को कैसे कृत्रिम उपायों द्वारा शैवाल से निकालकर औद्योगिक कार्यों में प्रयुक्त किया जाए।

विभिन्न क्षेत्रों में शैवाल के उपयोगों को देखते हुए यह बात होता है कि कुछ ही दिनों में इसके महत्वपूर्ण तथा चमत्कारी गुणों द्वारा हम मानव जाति की अनेक समस्याओं को आसानी से हल कर सकेंगे।

जहाँ शैवालों के अनेक लाभप्रद उपयोग हैं, वहाँ इनमें कुछ दोष भी पाए गए हैं। कुछ शैवाल जल को दूषित कर देते हैं। कुछ से ऐसी गैसें निकलती हैं जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं। कुछ शैवाल दूसरे पौधों पर रोग भी फैलाते हैं। चाय की पत्ती का लाल रोग, सेफेल्यूरस (Cephaleuros), शैवाल के कारण ही होता है।

शैवाल के रासायनिक अवयव

[संपादित करें]

इसकी जानकारी १८८३ ई. से शुरु हुई जब स्टैनफर्ड (Stanfurd) ने शैवाल में ऐल्जिनिक (Alginic) अम्ल की उपस्थिति का पता लगाया। विल्सटाटर और स्टॉल (Wilistatter and Stoll) ने शैवालों में पर्णहरित और अन्य रंगीन पदार्थों की उपस्थिति बतइलाई। १८९६ ई. में मोलिश (Molisch) ने सिद्ध किया कि शैवालों की वृद्धि के लिए खनिज लवण आवश्यक हैं। फिर अनेक व्यक्तियों ने जीवाणुओं से पूर्णतया अलग करके संबर्ध विलयन में शैवाल को उगाने का प्रयत्न किया। इनमें सबसे अधिक सफलता प्रिंगशाइम (Pringsheim) को मिली। शैवाल के उपापचय (metabolism) पर कार्य करने का श्रेय पियरसाल (Pearsall) और लूज़ (Loose) को है, जिन्होंने सिद्ध किया कि शैवाल और पौधों में प्रमुख रासायनिक क्रियाएँ प्राय: एक सी ही होती हैं। इनमें विशेष अंतर नहीं है। शैवालों में प्रकाशसंश्लेषण पर एंजेलमान (Engelman) तथा वारवुर्ग (Warburg) का कार्य विशेष रूप से उल्लेखनीय है। शैवालों की रासायनिक क्रियाओं की सविस्तर समीक्षा मीयेर्स और ब्लिंक (Mayers and Blink) ने १९५१ ई. में की। इससे शैवाल के संबंध की वैज्ञानिक और व्यावहारिक जानकारी पर्याप्त रूप से प्राप्त हुई है। शैवाल के श्वसन के संबंध में वातानाबे (Watanabe, 1932-37 ई.) कैल्विन (Calvin, १९५१ ई.), एनी (Eny, 1950 ई.), एंडरसन (Anderson, 1945 ई.) और वेव्स्टर (Webster, 1951 ई.) के अनुसंधान विशेष उल्लेखनीय हैं। इन वैज्ञानिकों के मतानुसार श्वसन ऑक्सीकरण क्रिया है, जिसमें शर्करा के ऑक्सीकरण से ऊर्जा उत्पन्न होती है और शैवाल के निर्माण और वृद्धि में काम आती है।

सभी शैवालों में वर्णक यौगिक, विशेषत: पर्णहरित और कैरोटीन, होते है। किसी किसी में फाइकोसायानिन (Phycocyanin) भी पाया जाता है। यह वर्णक यौगिक प्रकाश के अवशोषण द्वारा ऊर्जा उत्पन्न कर पर्णहरित बनाता है। पर्णहरित प्रकाश ऊर्जा द्वारा इलेक्ट्रॉन निकालता है, जिसके द्वारा यौगिकों के अपचयन में ऊर्जा प्राप्त होती है। अपचयित पदार्थ का पुन: ऑक्सीकरण होकर, प्रकाश द्वारा ऊर्जा का आदान प्रदान होता रहता है। ऐसी ही क्रियाओं से कार्बन डाइऑक्साइड का अपचयन होकर शर्करा, स्टार्च, सेलुलोस आदि और फिर उनसे प्रोटीन, वसा, तेल आदि संश्लेषित होते हैं।

शैवाल के उपाचय के उत्पाद

[संपादित करें]

शैवाल में शर्कराएँ पाई जाती है। कुछ में ग्लूकोस, कुछ में ट्रेहलोस, कुछ में पेंटोस पाए जाते हैं। इनकी मात्राएँ विभिन्न शैवालों में विभिन्न रहती हैं। अनेक शैवालों में स्टार्च पाए जाते हैं। ऐसे सब स्टार्च एक से नहीं होते हैं, कुछ में ग्लाइकोजेन भी पाया गया है। कुछ में लैमिनैरिन नामक शर्करा पाई गई है। शैवाल की कोशिकाओं की भित्ति होती है।

समुद्री शैवाल में ऐगार-ऐगार नामक पॉलिसैकराइड मिलता है। अन्य कई पॉलिसैकराइड विभिन्न शैवालों में मिलते हैं। शैवालों में वसा भी मिलती है। ऐसी वसा में प्रधानतया पामिटिक अम्ल रहता है। स्टेरॉल भी कुछ शैवाल में मिलते हैं। कुछ शैवालों में निटोल भी, जो संभवत: फ्रक्टोग के अपचयन से बनता है, पाया गया है। शैवालों में जो प्रोटीन पाए गए है उनके विघटन उत्पाद, ऐमिनो अम्लों का विस्तार से अध्ययन हुआ है। लगभग १६ ऐमिनो अम्ल अब तक पृथक्‌ किए जा चुके हैं। इनमें सबसे अधिक मात्रा में आर्जिनिन पाया गया।

ये भी देंखे

[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ

[संपादित करें]