कंठमाला
कंठमाला लसीका ग्रंथियों का एक चिरकारी रोग (chronic disease) है। इसमें गले की ग्रंथियाँ बढ़ जाती हैं और उनकी माला सी बन जाती है इसलिए उसे कंठमाला कहते हैं। आयुर्वेद में इसका वर्णन 'गंडमाला' तथा 'अपची' दो नाम से उपलब्ध है, जिन्हें कंठमाला के दो भेद या दो अवस्थाएँ भी कह सकते हैं।
गंडमाला
[संपादित करें]छोटी बेर, बड़ी बेर या आँवले के प्रमाण की गाँठें (गंड) गले में हो जाती हैं जो माला का रूप धारण कर लेती है उन्हें गंडमाला कहते हैं। परंतु यह क्षेय है और इसका स्थान केवल ग्रीवा प्रदेश ही नहीं है अपितु शरीर के अन्य भागों में भी, जैसे कक्ष, वक्ष आदि स्थानों में ग्रंथियों के साथ ही इसका प्रादुर्भाव या विकास हो सकता है। गाँठों की शृंखला या माला होने के कारण इसे गंडमाला कहते हैं। ज्ञातव्य है कि मामूली प्रतिश्याय (जुकाम), व्रण इत्यादि कारणों से भी ये ग्रंथियाँ विकृत होकर बढ़ जाती हैं परंतु माला नहीं बन पाती हैं अत: इनका अंतर्भाव इसमें नहीं होता।
अपची
[संपादित करें]इन ग्रंथियों की माला में जब पाक होने लगता है तो उसे 'अपची' कहते हैं। इसका प्रधान लक्षण है कि किसी ग्रंथि के पाक हो जाता है और वह फूटकर बह जाती है, परंतु इसके साथ ही दूसरी ग्रंथि में पाक होने लगता है और वह भी स्रावित हो जाती है। इस प्रकार नई-नई ग्रंथियों का बढ़ना, फूटना और बहना लगा रहता है और यह क्रम चलता ही रहता है। परंतु व्रण भरने पर उसका चिह्न रह जाता है जिससे उसके स्थान का पता लगता रहता है। इस प्रकार बार-बार नई ग्रंथियों का उपचय होने के कारण इसे अपची रोग कहा गया है।
इस संदर्भ में कई लेखकों का दृष्टिकोण है कि गंडमाला और अपची एक ही रोग है और इसकी दो अवस्थाएँ हैं। परंतु यह ज्ञातव्य है कि कुछ ग्रंथियाँ ऐसी होती हैं जिनमें कभी पाक होता ही नहीं और कुछ में होता है। इन दोनों का कारण, लक्षण एवं चिकित्सा सब कुछ भिन्न है अत: इनको दो भिन्न वर्ग भी माना जा सकता है, एक पकनेवाली और दूसरी न पकनेवाली। परंतु कंठमाला में दोनों का अंतर्भाव हो जाता है।
आधुनिक चिकित्सा प्रणाली में कंठमाला का तत्सम रूप सरवाइकल लिंफ़ेडीनाइटिस (ervical lymphadenitis) है। इसमें ग्रीवा प्रदेश की लिंफ़ ग्लैंड की वृद्धि हो जाती है जिन्हें लिम्फ़ नोड (गंड) भी कहते हैं। मुख में, गले के भीतर, कान में या शिर पर किसी प्रकार के शोथ या पाक के कारण ये ग्रंथियाँ बढ़ जाती हैं जो प्रमुख रोग की चिकित्सा या शांति पर पुन: बैठ जाती हैं परंतु इनका स्वरूप कभी माला का नहीं होता और ये चिरकारी भी नहीं होतीं। ये बहुधा आशुकारी ही होती हैं अर्थात् इनका उदय और शांति दोनों कम समय में होती है। चिरकारी प्राकर की ग्रंथियों के मुख्य कारण तीन हैं-
1. क्षयज लसीका ग्रंथि (ट्युबरकुलर लिंफेडिनाइटिस)
2. औपदंशिक लसीका ग्रंथि (सिफ़िलिटि लिंफ़ेडिनाइटिस)
3. लसीका ग्रंथियों के अर्बुद (हाचकिन डिज़ीज़, ल्यूकीमिया इत्यादि)
क्षयज लसीका ग्रंथि
[संपादित करें]क्षय रोग की उत्पत्ति क्षय के कीटाणुओं से होती है, ऐसा सिद्ध ही हो चुका है। क्षय के कीटाणु दो प्रकार के होते हैं :
1. ह्यूमन, 2. बोवाइन।
इसमें प्रथम प्रकार के कीटाणुओं से फेफड़े के रोग होते हैं, दूसरे प्रकार के कीटाणुओं से गले के, आँतों के तथा तत्ससंबंधी लसीका ग्रंथियों के। इससे स्पष्ट है कि कंठमाला की उत्पत्ति बोवाइन जाति के कीटाणु से होती है। यह उल्लेखनीय है कि इस प्रकार के कीटाणुओं का संक्रमण गाय के दूध के द्वारा होता है। यदि दूध को अच्छी तरह उबालकर पिया जाए तो इस रोग के होने की संभावना नही रह जाती है।
जहाँ तक इसके लक्षण एवं चिकित्सा का प्रश्न है, यह विशेषकर गले के अगले भाग में ग्रंथियों के रूप में उत्पन्न होता है और क्रमश: पकता एवं फूटता रहता है। साथ ही, राजयक्ष्मा के अन्य सभी लक्षण, जैसे ज्वर, भूख का कम लगना, दुर्बलता आदि भी पाए जाते हैं। इसकी चिकित्सा में सामान्य रूप से स्ट्रेप्टोमाइसिन एवं आइसोनियाज़िड एवं पास का प्रयोग होता है। इस रोग से पूर्ण मुक्त होने के लिए चिकित्सा लंबे समय तक करनी चाहिए। (डेढ़ से दो वर्ष) अन्यथा पुन: प्रादुर्भाव होने का डर बना रहता है। किसी-किसी अवस्था में शल्य चिकित्सा का भी सहारा लेना पड़ता है। साथ ही पौष्टिक आहार एवं उचित आराम की उपयोगिता रोग निवारण से कम नहीं है।
औपदंशिक लसीका ग्रंथि
[संपादित करें]ये ग्रंथियाँ बहुधा गर्दन के सामने के भाग में पाई जाती हैं। ये कठिन तथा अपाकी होती हैं। इनमें वेदना भी नहीं होती। अत: ये कंठमाला का स्वरूप नहीं ले पातीं। इनकी उत्पत्ति का कारण उपदंश के जीवाणु हैं। इसकी चिकित्सा भी उपदंश विरोधी चिकित्सा ही है। पहले आर्सेनिक, बिसमथ एवं मर्करी आदि धातुओं का प्रयोग इनकी चिकित्सा में होता था। परंतु ये काफी विषाक्त थे अत: धीरे-धीरे इनका प्रयोग में आना बंद हो गया है। आजकल इसकी सुगम चिकित्सा पेन्सिलीन के द्वारा ही होती है और अब पेन्सिलीन के युग में ग्रीवा के औपदंशिक लसीका ग्रंथियों के रोगी दिखाई भी कम देते हैं।
लसीका ग्रंथियों के अर्बुद
[संपादित करें]हाचकिन डिज़ीज़, ल्यूकीमिया एवं लिंफ़ोसार्कोमा मुख्य रूप से लसीका ग्रंथियों के अर्बुद हैं। इनमें हाचकिन डिज़ीज प्रमुख है। लिंफोसार्क्रोमा एक आशुकारी व्याधि है जिसमें दो तीन हफ्ते में ही मृत्यु हो सकती है और ल्यूकीमिया एक प्रकार का रक्त का कैंसर है जिसमें प्लीहावृद्धि विशेष रूप से होती है। रक्तपरीक्षा के द्वारा इसका निर्णय शीघ्र हो जाता है।
हाचकिन डिज़ीज़ मुख्यतया नौजवान व्यक्तियों में पाई जाती है। इसमें गले की विभिन्न लसीका ग्रंथियाँ कुछ तीव्र गति से तथा धीरे-धीरे वृद्धि करती हैं तथा ये त्वचा से अलग रहती हैं। ये स्पर्श में लचीली मालूम पड़ती हैं। कुछ दिनों के बाद रोगी में रक्त की अति क्षीणता हो जाती है तथा रोगी को अनियमित ढंग से ज्वर भी आने लगता है।
संक्षेप में, यह स्मरणीय है कि ग्रीवा में होनेवाली सभी लसीका ग्रंथियाँ एक ही प्रकार की नहीं होतीं और उनकी चिकित्सा भी भिन्न-भिन्न होती है। सभी ग्रंथियों की कंठमाला शब्द से संबोधित करना भी उचित नहीं है। कंठमाला शब्द क्षयज लसीका ग्रंथियों के लिए विशेष रूप से प्रयोग किया जाता है।
इन्हें भी देखें
[संपादित करें]बाहरी कड़ियाँ
[संपादित करें]- Werrett, Simon. "Healing the Nation’s Wounds: Royal Ritual and Experimental Philosophy in Restoration England." History of Science 38 (2000): 377-99.
- Scrofula[मृत कड़ियाँ] MedPix(r) Images