समाधि
समाधि , योग की अन्तिम अवस्था है। योग और समाधि पर्यायवाची शब्द हैं (योगः समाधिः)। चित्त की समस्त वृत्तियों के निरोध होने पर चित्त की स्थिर एवं उत्कृष्ट अवस्था होती है। यही समाधि की अवस्था कहलाती है। [1]
हिन्दू, जैन, बौद्ध तथा योगी आदि सभी धर्मों में इसका महत्व बताया गया है। जब साधक ध्येय वस्तु के ध्यान मे पूरी तरह से डूब जाता है और उसे अपने अस्तित्व का ज्ञान नहीं रहता है तो उसे समाधि कहा जाता है। पतंजलि के योगसूत्र में समाधि को आठवाँ (अन्तिम) अवस्था बताया गया है। समाधि के बाद प्रज्ञा का उदय होता है और यही योग का अंतिम लक्ष्य है।
- तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यं इव समाधिः ॥ (योगसूत्र ३.३ )
अर्थात् इस अवस्था में बाह्य जगत् के साथ जीव का सम्बन्ध टूट जाता है और वह अपने स्वरूप नित्य पद को प्राप्त कर लेता है।
जो व्यक्ति समाधि को प्राप्त करता है उसे स्पर्श, रस, गंध, रूप एवं शब्द इन 5 विषयों की इच्छा नहीं रहती तथा उसे भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, मान-अपमान तथा सुख-दुःख आदि किसी की अनुभूति नहीं होती।
- न गंध न रसं रूपं न च स्पर्श न निःस्वनम्।
- नात्मानं न परस्यं च योगी युक्तः समाधिना॥
भावार्थ : ध्यान का अभ्यास करते-करते साधक ऐसी अवस्था में पहुंच जाता है कि उसे स्वयं का ज्ञान नहीं रह जाता और केवल ध्येय मात्र रह जाता है, तो उस अवस्था को समाधि कहते हैं। समाधि की अवस्था में सभी इन्द्रियां मन में लीन हो जाती है। व्यक्ति समाधि में लीन हो जाता है, तब उसे रस, गंध, रूप, शब्द इन 5 विषयों का ज्ञान नहीं रह जाता है। उसे अपना पराया, मान-अपमान आदि की कोई चिंता नहीं रह जाती है।
प्रकार
[संपादित करें]पातञ्जल योगदर्शन में समाधि दो प्रकार की होती है- १. सम्प्रज्ञात समाधि २. असम्प्रज्ञात समाधि
सम्प्रज्ञात समाधि
[संपादित करें]इसे सविकल्प समाधि या सबीज समाधि भी कहते हैं। चित्त की एकाग्रभूमि का वृत्तिनिरोध । राजस और तामस वृत्तियों का पूर्ण निरोध होता है। इसमें केवल सात्त्विक वृत्तियाँ पूर्णरूप से उदित रहती है। इस अवस्था में साधक को समग्र वस्तुओं को वास्तविक, निर्भ्रान्त एवं युगपद् ज्ञान होता है। इसलिते इस समाधि को सम्प्रज्ञात समाधि कहते है।
- सम्यक् प्रज्ञायतेऽस्मिन्निति सम्प्रज्ञातं समाधिः ।
सम्प्रज्ञात समाधि के सिद्ध होने से प्रकृति और पुरुष इन दो अन्तिम तत्त्वों का विविक्तज्ञान भी हो जाता है । यही विवेकख्याति है । तत्त्वों का पूर्ण ज्ञान होने के कारण इसे तत्त्वज्ञान या सम्यग्ज्ञान भी कहते हैं। विवेकख्याति का लाभ कराने के कारण इसे सम्प्रज्ञात योग कहा जाता है। इस समाधि को धर्ममेघसमाधि भी कहा जाता है । सम्प्रज्ञात समाधि की सिद्धि चार सोपानों में होती है-
(१) सवितर्क – समाधि की इस अवस्था में किसी स्थूल विषय पर चित्त एकाग्र होता है। जैसे किसी देवता की मूर्ति पर ध्यान केन्द्रित होना ।
(२) सविचार – यह समाधि की वह अवस्था है जिसमें साधक सतत् अभ्यास के परिणामस्वरूप स्थूल विषय का परित्याग करके पंचतन्मात्र, बुद्धि, अहंकार आदि सूक्ष्म एवम् अतिसूक्ष्म विषयों पर ध्यान केन्द्रित करता है।
(३) सानन्द - यह समाधि की वह अवस्था है जिसमें सूक्ष्म विषयों पर केन्द्रित चित्त में सत्त्वगुण अधिकता के कारण विशेष आनन्द की उत्पत्ति होती है ।
(४) सास्मित- यह समाधि की वह अवस्था है जिसमें साधक को केवल "मैं हूँ" का ज्ञान रहता है।
असम्प्रज्ञात समाधि
[संपादित करें]इसे निर्विकल्प समाधि या निर्बीज समाधि भी कहते हैं।
- विरामप्रत्याभ्यासपूर्व: संस्कारशेषोऽन्यः ।
अर्थात् ऐसी समाधि है जिसमें चित्त की सात्त्विक, राजस और तामस वृत्तियों का पूर्ण निरोध हो जाता है, उसे असम्प्रज्ञात समाधि कहते है। असम्प्रज्ञात समाधि में कोई आलम्बन अवशिष्ट नहीं होता । चित्त की ऐसी निरालम्ब अवस्था में केवल पूर्वज्ञान के संस्कार अवशिष्ट रहते हैं । व्यासभाष्य में इसे निर्बीज समाधि कहा गया है। असम्प्रज्ञात समाधि दो प्रकार की होती है -
(क) भवप्रत्यय असम्प्रज्ञात समाधि - भवप्रत्ययो विदेहप्रकृतिलयानाम् । अर्थात् भवप्रत्यया असम्प्रज्ञात समाधि विदेहों तथा प्रकृतिजनों को होती है ।
(ख) उपायप्रत्यय असम्प्रज्ञात समाधि - उपायप्रत्ययो योगिनां भवति । अर्थात् उपायप्रत्यय असम्प्रज्ञातसमाधि योगियों को होती है ।
समाधि के अन्य प्रकार
[संपादित करें]सवितर्क समाधि एवं निर्वितर्क समाधि
[संपादित करें]सवितर्क समाधि :- इस अवस्था में योगी किसी विचार एवं भाव से ग्रसित या किसी भाव में आसक्त तो नहीं होता लेकिन उसके चित्त में विचारों का संक्रमण बना रहता है ।इस अवस्था में शब्द अर्थ एवं उससे उत्पन्न ज्ञान मिश्रित अवस्था में रहते हैं ।
निर्वितर्क समाधि:- जब स्मृति शुद्ध हो जाती है । अर्थात स्मृति में अब किसी भी गुण का संग ना हो । कोई तर्क वितर्क ना हो तो वह निर्वितर्क समाप्ति है ।
सबीज समाधि एवं निर्बीज समाधि
[संपादित करें]सबीज समाधि :- उपयुक्त अवस्थाओं में पूर्व कर्मों का बीज नष्ट नहीं होता अतः वह सबीज समाधि है। सबीज समाधि में अस्मिता सूक्ष्म रूप से रहती है । बीज शरीर विद्यमान रहता है ।
निर्बीज समाधि :- इस अवस्था में सम्पूर्ण संस्कारो का निरोध हो जाता है । सूक्ष्म शरीर एवं कारण शरीर का सम्पूर्ण लय हो जाता है । यहाँ जीव के अस्तित्व का लय हो जाता है किसी प्रकार की कोई अभिव्यक्ति नहीं होती । कोई अस्मिता नहीं होती ।
समाधि के विघ्न
[संपादित करें]ऋषि पतंजलि ने अपने योगसूत्र में साधना के चौदह प्रकार के विघ्न बताये हैं और साथ ही इनसे छूटने का उपाय भी बताया है। वे १४ विघ्न इस प्रकार हैं :
- व्याधि-स्त्यान-संशय-प्रमाद-आलस्य-अविरति-भ्रान्तिदर्शन-अलब्धभूमिकत्व-अनवस्थितत्वानि चित्त विक्षेपस्ते अंतरायाः -- योगसूत्र, समाधि पाद, सूत्र ३०
व्याधि :- शरीर एवं इन्द्रियों में किसी प्रकार का रोग उत्मन्न हो जाना
स्त्यान :- सत्कर्म/साधना के प्रति होने वाली ढिलाई, अप्रीति, जी चुराना
संशय :- अपनी शक्ति या योग प्राप्ति में संदेह उत्पन्न होना
प्रमाद :- योग साधना में लापरवाही बरतना (यम-नियम आईडी का ठीक से पालन नहीं करना या भूल जाना)
आलस्य :- शरीर व मन में एक प्रकार का भारीपन आ जाने से योग साधना नहीं कर पाना
अविरति :- वैराग्य की भावना को छोड़कर सांसारिक विषयों की और पुनः भागना
भ्रान्त दर्शन :- योग साधना को ठीक से नहीं समझना, विपरीत अर्थ समझना। सत्य को असत्य और असत्य को सत्य समझ लेना
अलब्धभूमिकत्व :- योग के लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होना. योगाभ्यास के बावजूद भी साधना में विकास नहीं दिखता है । इससे उत्साह कम हो जाता है ।
अनवस्थितत्व :- चित्त की विशेष स्थिति बन जाने पर भी उसमें स्थिर नहीं होना। 'दु:ख-दौर्मनस्य-अङ्गमेजयत्व-श्वास-प्रश्वासा विक्षेप सह्भुवः । (योगसूत्र, समाधि पाद, सूत्र ३१)
दुःख :- तीन प्रकार के दुःख आध्यात्मिक,आधिभौतिक और आधिदैविक
दौर्मनस्य :- इच्छा पूरी नहीं होने पर मन का उदास हो जाना या मन में क्षोभ उत्पन्न होना
अङ्गमेजयत्व :- शरीर के अंगों का कांपना
श्वास :- श्वास लेने में कठिनाई या तीव्रता होना
प्रश्वास :- श्वास छोड़ने में कठिनाई या तीव्रता होना
- साधना के विघ्नों को दूर करने के उपाय
यदि साधक अपनी साधना के दौरान ये विघ्न अनुभव करता हो तो इनको दूर करने के उपाय करे। इसके लिए पतंजलि ने समाधि पाद सूत्र ३२ से ३९ तक ८ प्रकार के उपाय बताये हैं जो की इस प्रकार हैं-
- तत्प्रतिषेधार्थमेकतत्त्वाSभ्यासः ॥३२॥
योग के उपरोक्त विघ्नों के नाश के लिए एक तत्त्व ईश्वर का ही अभ्यास करना चाहिए। ॐ का जप करने से ये विघ्न शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं।
- मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम् ॥३३॥
सुखी जनों से मित्रता, दु:खी लोगों पर दया, पुण्यात्माओं में हर्ष और पापियों की उपेक्षा की भावना से चित्त स्वच्छ हो जाता है और विघ्न शांत होते हैं।
- प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य ॥३४॥
श्वास को बार-बार बाहर निकालकर रोकने से उपरोक्त विघ्न शांत होते हैं। इसी प्रकार श्वास भीतर रोकने से भी विघ्न शांत होते हैं।
- विषयवती वा प्रवृत्तिरुत्पन्ना मनसः स्थितिनिबन्धिनी ॥३५॥
दिव्य विषयों के अभ्यास से उपरोक्त विघ्न नष्ट होते हैं।
- विशोका वा ज्योतिष्मती ॥३६॥
हृदय कमल में ध्यान करने से या आत्मा के प्रकाश का ध्यान करने से भी उपरोक्त विघ्न शांत हो जाते हैं।
- वीतरागविषयं वा चित्तम् ॥३७॥
रागद्वेष रहित संतों, योगियों, महात्माओं के शुभ चरित्र का ध्यान करने से भी मन शांत होता है और विघ्न नष्ट होते हैं।
- स्वप्ननिद्राज्ञानालम्बनं वा ॥३८॥
स्वप्न और निद्रा के ज्ञान का अवलंबन करने से, अर्थात योगनिद्रा के अभ्यास से उपरोक्त विघ्न शांत हो जाते हैं।
- यथाभिमतध्यानाद्वा ॥३९॥
उपरोक्त में से किसी भी एक साधन का या शास्त्र सम्मत अपनी पसंद के विषयों (जैसे मंत्र, श्लोक, भगवन के सगुन रूप आदि) में ध्यान करने से भी विघ्न नष्ट होते हैं।