गद्य
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सामान्यत: मनुष्य की बोलने या लिखने पढ़ने की छंदरहित साधारण व्यवहार की भाषा को गद्य (prose) कहा जाता है।[1] इसमें केवल आंशिक सत्य है क्योंकि इसमें गद्यकार के रचनात्मक बोध की अवहेलना है। साधारण व्यवहार की भाषा भी गद्य तभी कही जा सकती है जब यह व्यवस्थित और स्पष्ट हो। रचनात्मक प्रक्रिया को ध्यान में रखते हुए गद्य को मनुष्य की साधारण किंतु व्यवस्थित भाषा या उसकी विशिष्ट अभिव्यक्ति कहना अधिक समीचीन होगा।
परिचय
[संपादित करें]मनुष्य की सहज एवं स्वाभाविक अभिव्यक्ति का रूप गद्य है। कविता और गद्य में बहुत सी बातें समान हैं। दोनों के उपकरण शब्द हैं जो अर्थ परिवर्तन के बिना एक ही भंडार से लिए जाते है; दोनों के व्याकरण और वाक्यरचना के नियम एक ही हैं (कविता के वाक्यों में कभी कभी शब्दों का स्थानांतरण, वाक्यरचना के आधारभूत नियमों का खंडन नहीं), दोनों ही लय और चित्रमय उक्ति का सहारा लेते हैं। वर्डस्वर्थ के अनुसार गद्य और पद्य (या कविता) की भाषा में कोई मूलभूत अंतर न तो है और न हो सकता है।
लेकिन इन सारी समानताओं के बावजूद कविता और गद्य अभिव्यक्ति के दो भिन्न रूप हैं। समान उपकरणों के प्रति भी उनके दृष्टिकोणों की असमानता प्राय: स्तर पर उभर आती है। लेकिन उनमें केवल स्तरीय नहीं बल्कि तात्विक या गुणात्मक भेद है, जिसका कारण यह हैं कि कविता और गद्य जगत् और जीवन के विषय में मनुष्य की मानसिक प्रक्रिया के दो भिन्न रूपों की अभिव्यक्ति हैं। उनके उदय और विकास के इतिहास में इसके प्रमाण मौजूद है।
अपनी पुस्तक इल्यूजन ऐंड रिएलिटी में कॉडवेल ने कविता की उत्पत्ति, सामाजिक उपादेयता और तकनीक का विस्तृत विवेचन करते हुए लिखा है कि साहित्य के सबसे प्रारंभिक रूप में कविता मनुष्य की साधारण भाषा का उन्मेषीकरण थी। उस काल कविता केवल रागात्मक न होकर इतिहास, धर्म, दर्शन, तंत्र, मंत्र, ज्योतिषि, नीति और भैषज संबंधी ज्ञान का भी वहन करती थी। उसे उन्मेष प्रदान करने के लिए संगीत, छंद, तुक, मात्रा या स्वराघात, अनुप्रास, पुनरावृत्ति, रूपक इत्यादि का प्रयोग किया जाता है। कालांतर में सभ्यता के विकास, समाज के वर्गीकरण, श्रमविभाजन और उद्बुद्ध साहित्यिक चेतना के कारण पहले की उन्मेषपूर्ण भाषा भी विभक्त हो गई—कविता ने अपने को रागों की उन्मेषपूर्ण भाषा के रूप में सीमित कर लिया और विज्ञान, दर्शन, इतिहास, धर्मशास्र, नीति, कथा और नाटक ने साधारण व्यवहार, अर्थात् कथ्य की भाषा को अपनाया। आवश्यकतानुसार प्रत्येक शाखा ने अपनी विशिष्ट शैली की विधि का विकास किया, उनमें आदान प्रदान हुआ और उनसे स्वयं साधारण व्यवहार की भाषा भी प्रभावित हुई। मनुष्य का मानसिक जगत् अपने को भाषा के दो विशिष्ट रूपों-कविता और गद्य-में प्रतिबिंबित करने लगा।
कविता और गद्य के उद्देश्यों में भेद और भाषा के उपकरण शब्दों के प्रति उनके दृष्टिकोण में भेद का गहरा संबंध है। कविता की उत्पत्ति मनुष्य के सामूहिक श्रम के साथ हुई। शब्द अनिवार्यत्: संगीत और प्राय: नृत्य के सहारे पूरे समूह के आवेगों को एक बिंदु पर संगठित कर कार्य संपन्न करने की प्रेरणा देते थे। फसल सामने नहीं थी, बीज बोना था। शब्दों का कार्य था लहलहाती फसल का मायावी चित्र उपस्थित कर पूरे समूह को बीज बोने के लिए प्रेरित करना। कॉडवेल के अनुसार इस मायावी सृष्टि के द्वारा शब्द शक्ति बन जाते थे। कविता सामूहिक भावों और आंकाक्षाओं का प्रतिबिंब थी और उन्हें उद्बुद्ध और संगठित करने का अस्र थी। इसलिए कविता का सूक्ष्म कथ्य-उसके तथ्यों की वस्तु-नहीं, बल्कि समाज में उसकी गद्यात्मक भूमिका-उसके सामूहिक भावों की वस्तु-कविता का सत्य है।
सामाजिक जीवन में शब्द वस्तुनिष्ठ जगत् के शुष्क प्रतीक मात्र नहीं रह जाते बल्कि उनके साथ जीवन के अनुभव से उत्पन्न सरल से जटिल होते हुए भावात्मक संदर्भ जुड़ जाते हैं। कविता शब्दों के शुद्ध प्रतीकात्मक अर्थ की उपेक्षा नहीं कर सकती, लेकिन उसका मुख्य उद्देश्य शब्दों के भावात्मक संदर्भों को अर्थपूर्ण संगठन है। कविता शब्दों की नई सृष्टि है। हर्बर्ट रीड के शब्दों में कविता में चिंतन के दौरान शब्द बार बार नया जन्म लेते हैं। अनेक भाषाओं में कवि के लिये प्रयुक्त शब्द का अर्थ स्रष्टा है।
गद्य शब्दों के भावात्मक संदर्भों के स्थान पर उनके वस्तुनिष्ठ प्रतीकात्मक अर्थ को ग्रहण करता है। गद्य में शब्दों के इस प्रकार के प्रयोग को ध्यान में रखकर हर्बर्ट रीड ने गद्य को निर्माणात्मक अभिव्यक्ति कहा है, ऐसी अभिव्यक्ति जिसमें शब्द निर्माता के चारों ओर प्रयोग के लिए ईंट गारे की तरह बने बनाए तैयार करते हैं।
स्पष्ट है कि शब्द के वस्तुनिष्ठ अर्थ और उसके भावात्मक संदर्भ को पूर्णतया विभक्त करना संभव है। यही कारण है कि कविता सर्वथा कथ्यशून्य नहीं हो सकती और गद्य सर्वथा भावशून्य नहीं हो सकता। कविता और गद्य की तकनीकों में पास्परिक आदान प्रदान स्वाभाविक है। किंतु जहाँ उनके विशिष्ट धर्मों का बोध नहीं होता, वहाँ हमें कविता के स्थान पर फूहड़ गद्य और पद्य के स्थान पर फूहड़ कविता के दर्शन होते हैं।
वस्तुनिष्ठ सत्य की भाषा कहने का अर्थ यह नहीं कि गद्य कविता से हेय है, या उसका सामाजिक प्रयोजन कविता से कम है, या वह भाषा की कलाशून्य अभिव्यक्ति है। वास्तव में बहुत से ऐसे कार्य जो कविता की शक्ति के बाहर है, गद्य द्वारा संपन्न होते हैं। बहुत पहले यह अनुभव किया गया कि कविता की छंदमय भाषा में विचारों का तर्कमय विकास संभव नहीं। कविता से कम विकसित अवस्था में भी गद्य की विशष्ट शक्ति को पहचानकर अरस्तु ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ रेटॉरिक में उसे प्रतीति परसुएशन, दूसरों को अपने विचारों से प्रभावित करने की भाषा कहा था, जिसके मुख्य तत्त्व हैं-विचारों का तर्कसंगत क्रम, वर्णन की सजीवता, कल्पना, चित्रयोजना, सहजता, लय, व्यक्तिवैचित्र्य, उक्ति-सौंदर्य, ओज, संयम। इनमें से प्रत्येक बिंदु पर कविता और गद्य की सीमाएँ मिलती हुई जान पड़ती हैं, किंतु दोनों में इनके प्रयोग की अलग अलग रीतियाँ हैं।
उदाहरणार्थ, उनके दो तत्व, लय और चित्रयोजना, लिए जा सकते हैं जिनकी बहुत चर्चा होती है। गद्य की लय में कविता की लय से अधिक लोच या विविधता होती है क्योंकि गद्य में लय वाक्यरचना की नहीं बल्कि विचारों की इकाई होती है। कविता में प्राय:। लय को वाक्यरचना की इकाई बनाकर पुनरावृत्ति से प्रभाव को तीव्रता दी जाती है। कविता से कहीं ज्यादा गद्य में लय अनुभूति की वाणी है। प्राय: लय के माध्यम से ही गद्यकार के व्यक्तिव का उद्घाटन होता है।
कविता के प्राण चित्रयोजना में बसते हैं, जबकि गद्य में उसका प्रयोग अत्यंत संयम के साथ विचार को आलोकित करने के लिये ही किया जाता है। अंग्रेजी गद्य के महान शैलीकर स्विफ्ट के विषय में डॉ॰ जान्सन ने कहा था : यह दुष्ट कभी एक रूपक का भी खतरा मोल नहीं लेता। मुख्य वस्तु यह है कि गद्य में भाषा की सारी क्षमताएँ विचार की अचूक अभिव्यक्ति के अधीन रहती हैं। कविता में भाषा को अलंकृत करने की स्वतंत्रता अक्सर शब्दों के प्रयोग और वाक्यरचना के प्रति असावधान रहने की प्रवृत्ति का कारण है। विशेषणों का जितना दुरुपयोग कविता में संभव है उतना गद्य में नहीं। कविता में संगीत को अक्सर सस्ती भावुकता का आवरण बना दिया जाता है। गद्य में कथ्य का महत्त्व उसपर अंकुश का काम करता है। इसलिये गद्य का अनुशासन भाषा के रचनासौंदर्य के बोध का उत्तम साधन है। टी. एस. इलियट के शब्दों में अच्छे गद्य के गुणों को होना अच्छी कविता की पहली और कम से कम आवश्यकता है।
गद्य का प्रारंभ इतिहास, विज्ञान, सौंदर्यशास्र इत्यादि की भाषा के रूप में हुआ। बाद में वह उपयोग से कला की ओर प्रवृत्त हुआ। रूपों के विकास के आधार पर उसकी तीन स्थूल कोटियाँ बनी हैं-वर्णनात्मक, जिसमें कथा, इतिहास, जीवनी, यात्रा इत्यादि आते हैं। विवेचनात्मक, जिसमें विज्ञान, सौंदर्यशास्र, आलोचना, दर्शन, धर्म और नीतिशास्र, विधि, राजनीति इत्यादि आते हैं, एवं भावात्मक, जिसमें ऊपर के अनेक विषयों के अतिरिक्त आत्मपरक निबंध और नाटक आते हैं। विषयों के अनुसार गद्य में प्रवाह, स्पष्टता, चित्रमयता, लय, व्यक्तिगत अनुभूति, अलंकरण इत्यादि की मात्राओं में हेर फेर का होना आवश्यक हैं, किंतु गद्य की कोटियों के बीच दीवारें नहीं खड़ी की जा सकती। लेखक की रुचि और प्रयोजन के अनुसार वे एक दूसरे में अंत:प्रविष्ट होती रहती है।
आधुनिक युग में उपन्यास गद्य की विशेष प्रयोगशाला बन गया है। कविता रह रहकर काफी दिनों तक शब्दों के पथ्य पर रहती है, गद्य में नए पुराने, सूखे चिकने सभी प्रकार के शब्दों को पचाने की अद्भुत शक्ति होती है। बोनामी डाब्री (Bonamy Dobree) के अनुसार सारा अच्छा जीवित गद्य प्रयोगात्मक होता है। उपन्यास गद्य की इस क्षमता का पूरा उपयोग कर सकता है। ऐसे प्रयोग इंग्लैंड की अपेक्षा अमरीका में अधिक हुए हैं और विंढम लिविस, हेमिंग्वे, स्टीन, फाकनर, ऐंडर्सन इत्यादि ने अपने प्रयोगों के द्वारा अंग्रेजी गद्य को नया रक्त दिया है। गद्य में तेजी से केंचुल बदलने की शक्ति का अनुमान हिंदी गद्य के तेज विकास से भी किया जा सकता है, हालाँकि उसका इतिहास बहुत पुराना नहीं। भविष्य में गद्य के विकास की और संकेत करते हुए एक अंग्रेज आलोचक मिडिलटन मरी ने लिखा है : गद्य की विस्तार सीमा अनंत है और शायद कविता की उपेक्षा उसकी संभावनाओं की कम खोज हुई है।
- ↑ तिवारी, रामचन्द्र (1992). हिन्दी का गद्य-साहित्य. विश्वविद्यालय प्रकाशन. पपृ॰ :772.