कवचपट्ट
कवचपट्ट (belt armor) इस्पात की उन चादरों को कहते हैं जो जहाजों की रक्षा के लिए उनके चारों ओर मढ़ी रहती हैं। ये चादरें बड़ी मोटी होती हैं, उदाहरणत: १४ इंच; इसलिए इन्हें चादर न कहकर पट्ट कहा जाता है।
इतिहास एवं विकास
[संपादित करें]जहाजों को कवचपट्टों से सुरक्षित करने की कल्पना बड़ी पुरानी है। २५० ई.पू. में प्रसिद्ध प्राचीन वैज्ञानिक आर्किमिडीज़ ने अपने देश के राजा हीरों के लिए पीतल के सिक्कड़ों और मोटी रस्सियों से सुरक्षित पोत बनवाया था। १८४० ई. में ब्रिटेन ने लोहे-पत्र-रक्षित पोत फ्ऱांसवालों ने बनाए, जो १८५५ की लड़ाई में बहुत उपयोगी सिद्ध हुए। इसके बाद अन्य देशों में कई जहाज बने जिनपर लोहे के पट्ट चढ़े थे। ये लगभग १ इंच मोटे होते थे। धीरे-धीरे पट्टों की मोटाई बढ़ाई जाने लगी। १८५७ में ४ इंच मोटे पट्टों का उपयोग हुआ, १८६६ में ६ इंच का, १८८१ में २४ इंच का।
स्वभावत: खोज होने लगी कि किस धातु के पट्ट से अधिकतम सुरक्षा होती है। ढलवाँ लोहे, इस्पात और पिटवाँ लोहे में पिटवाँ लोहा ही अधिक अच्छा निकला और पहले इसी धातु का उपयोग किया जाता था। यद्यपि इस्पात पिटवाँ लोहे से अधिक कड़ा अवश्य होता है, तथापि चोट खाने पर वह चटख जाता है। अधिक चिमड़ापन लाने के लिए मुख पर इस्पात और पीठ पर पिटवाँ लोहा लगाने की प्रथा चली। पहले दोनों को जोड़ने में कठिनाई पड़ती थीं, परंतु कुछ समय में एक अच्छी रीति निकली जिसमें पिटवाँ लोहे के पट्ट पर अतितप्त पिघला इस्पात ढाल दिया जाता है। इससे पिटवाँ लोहे का ऊपरी पृष्ठ पिघल जाता है और जोड़ सच्चा बनता है; परंतु अधिक सफलता कैप्टेन टी.जे. ट्रेसिडर की विधि से मिली (सन् १८८७), जिसमें इस्पात के पत्र को ही एक ओर कड़ा कर दिया जाता था और दूसरी ओर नरम रखा जाता था। इसके लिए तप्त इस्पात को पानी की धार से एक ओर शीतल किया जाता था। इससे अच्छा पट्ट बनाने की रीति १८९१ ई. में अमरीका के एक व्यक्ति हार्वी ने आविष्कृत की। इस रीति के अनुसार पिटवाँ लोहे के दो पट्टों के बीच चूर्ण कार्बन रखकर उन्हें दो या तीन सप्ताह तक तप्त रखा जाता था। इससे प्रत्येक पट्ट का एक पृष्ठ इस्पात हो जाता था और एकाएक शीतल करने पर अत्यंत कड़ा हो जाता था। इस प्रकार के बने पट्ट पहले से बहुत अच्छे होते थे, परंतु तब भी उनमें यह त्रुटि थी कि पीठ पर्याप्त चिमड़ी नहीं होती थी। १८९४ ई. में जर्मनी के प्रसिद्ध क्रुप कारखाने ने निकेल तथा क्रोमियम मिश्रित इस्पात के पट्ट बनाए जो एक ओर हार्वी की रीति से कड़े कर दिए जाते थे। ये पट्ट अपने से ढाई गुने मोटे पिटवाँ लोहे के पट्ट के समान पुष्ट होते थे। अब भी जहाजों की बगल को दृढ़ करने के लिए इसी विधि से कवचपट्ट बनते हैं। लगभग १६ इंच की मोटाई से साधारण सुरक्षा मिल जाती हैं।
सन् १९१४-१८ के विश्वयुद्ध में जहाजों की छतों को भी कवचित करने की आवश्यकता पड़ी, क्योंकि ऊपर से हवाई जहाजों से गोलियाँ बरसती थीं या बम गिरते थे और अधिक दूरस्थ तोपों के गोले भी ऊँचाई से गिरते थे। छत के लिए बहुत चिमड़े कवचपट्टों की आवश्यकता पड़ती है। निकेल तथा क्रोमियम पड़े इस्पात यहाँ भी लगाए जाते हैं, परंतु उनका पृष्ठ विशेष कठोर नहीं किया जाता।